Saturday, March 3, 2018
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dastan-e-mehkashi
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काग़ज़ और निशान
हाँ, तुम चले थे, मेरी राह पर,
और निशाँ छोड़ गये थे ।
कुछ निशान मेरे कमरे में
फ़र्श पर हैं,
कुछ उस राहों पर हैं,
जिनपे अक्सर मंज़िल ढूँढने,
हर रोज़ जाता हूँ मैं ।
अब तो एक तस्वीर भी रख ली हैं,
सुना हैं, वक़्त हर निशाँ मिटा देता हैं ।
अंधेरों में अक्सर, अब,
जब तुम, नजर नहीं आते,
मेरे कमरों पे पड़े कुछ कोरे काग़ज,
जला देता हूँ ।
फिर रौशनी में तुम्हारे क़दमों के निशाँ
कमरें में हर कोने में जातें नज़र आते हैं ।
मैं उन कुछ निशानों को बड़ी
तसल्ली से देखता हूँ,
जो मेरी उस अलमारी तक जाते है,
जहाँ मेरे दिल के हर कमरे की
चाभीयाँ रखी हैं ।
रोशन कुमार “राही”
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