Wednesday, February 28, 2018
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dastan-e-mehkashi
दिवास्वप्न
Posted by
Roshan Yadaw
at
6:22 AM
एक रोज़ सो कर उठा, तो मुझे अपने कमरें की दीवारें नही दिखी । चारों दिशाओं में सिर्फ़ अँधेरा भरा था । रोशनी की काली किरने कोई गीत गा रही थी । मैं हैरान था ।
कुछ दिखाई नही दे रहा था। वो अँधेरा इतना घना था की मैं खुद भी नहीं देख पा रहा था । ना अपने हाथ ना पैर, ना ही अपने शरीर का कोई और हिस्सा । सिर्फ़ मुझे मेरा बिस्तर नज़र आ रहा था, क्योंकि उससे हल्की रोशनी आ रही थी । और कुछ भी नहीं । समझ नहीं आ रहा था कि बाक़ी दुनियाँ कहा खो गयी हैं ।वो अदृश्य धुन मेरे कानो में गूँज रही थी, सन्नाटा गा रहा था शायद ।
मैं चारों तरफ़ हाथ से ही कुछ ढूँढने लगा कुछ तो होगा यहाँ जिसे मैं छूँ सकता हूँ । जिससे मुझे पता चल जाएगा की आख़िर मै हू कहाँ ।
मै मीलों चलता रहा, कुछ देर में ऐसा लगने लगा जैसे सदियों से चल रहा हू ।
मुझे अपनी तन्हाई अपने अकेलेपन से बहुत लगाव है, इस लिए वहा कुछ देर तो मुझे बहुत अच्छा लगा, फिर वो भावना आश्चर्य में बदल गयी और फिर वो आश्चर्य हैरानी में बदल गया ।
घबराहट मे मैंने अपनी माँ को पुकारा, कोई जवाब नहीं आया,
मैंने फिर से बुलाया । माँ, कहा हो आप? फिर भी कोई जवाब नहीं आया । यूँ तो बहुत से लोगों को जानता हू मै लेकिन उस समय कोई और ज़ेहन में आया नही, जिसे मदद ले लिये बुला लूँ । मै और भी डर गया था, सोच रहा था माँ ठीक तो है ।
माँ ठीक ही होगी, मैं जानता हू, वो सारे मुश्किलें पार कर लेती है, हर तरह के हालात को संभाल लेती है । उसने ज़रूर कोई रास्ता ढूँढ लिया होगा और पता नहीं उसे मालूम भी है की नही की मै कहा हू ।
उस पल, मुझे माँ की, बचपन में दी हुईं सारी हिदायतें याद आ रही थी । “कूये के पास मत जाना”, जब मै बस कुछ साल का था तो माँ रात को घर से बाहर नहीं जाने देती थी, जब मै ज़िद करता था तो बताती थी, कि, बाहर एक जानवर अपने परिवार के साथ बाहर हर रात मुझे उठा ले जाने के लिए आता है ।
और मै उन जानवरों के डर से बाहर नही जाता था और एक कमरे की खिड़की से उन्हें देखा करता था — उनकी आवाज़ें सुनकर अक्सर डर जाता था ।
जब मेरे बुलाने पे कोई नहीं आया तो ये अहसास हुआ की मै कही खो गया हू । यूँ तो हमेशा राह पर चलते-चलते खो जाना ख़ूबसूरत लगता हैं मुझे । ये खो जाने का अहसास पहली बार इतना डरावना लग रहा था । अपने अपनों से, अपने सारे सपनो से बहुत दूर महसूस कर रहा था ख़ुद को । खो गया हूँ ये ख़्याल मेरे दिल- दिमाग़ पर गहराता जा रहा था । फिर बहुत बेबस होकर रो पड़ा । जी भर के रोया मै । शायद पहले इतना कभी नहीं रोया मै ।
मेरी ख़यालों में वो ककनूस पक्षी हमेशा अपनी ही बानाई चिता मे जलता और बार - बार अपनी ही राख से जन्म लेता रहता है । जब वो जल रहा होता है तो उसका यूँ ख़ाक हो जाना ज़िंदगी का सारांश बताता हूआ नज़र आता है ।
मुझे लगा बस यही अंत है मेरा, उस वक़्त, मेरे मन के हज़ार ख़्यालों में एक ख़याल उस ककनूस पक्षी के वापस अपनी ही राख से पैदा होने से जुडा था । मैं चाहता था अगर यहा कुछ हो जाता है मुझे तो मैं भी फिर से वापिस आना चाहूँगा दुनियाँ मे, ये प्यार, मुहब्बत, नफ़रत, ईर्ष्या जो इस दुनियाँ ने दी है मुझे मैं उसे खोना नहीं चाहता हू।
मैं आज भी, जब भी घर जाता हू, माँ से वही लोरियाँ बार- बार सुनता हू ।
“तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राज दुलारा”
इस गाने की हर एक लाइन को माँ गा के सुनाती हैं ।
और अक्सर पहली कुछ लाइन के बाद नींद आ जाती थी,
अब जब भी सुनता ना जाने क्यों रोना आ जाता है । हारा हूआ महसूस कर रहा हूँ शायद ।
उस वक़्त जब लगा की अब ज़िंदगी ख़त्म हो गयी है मेरी, तब ये अहसास हुआ, हज़ारों कमियों बावजूद यहाँ बस ज़िंदा होना भी कितना खूबसूरत था । मै रोता रहा ये सोच कर की ज़िंदगी अब ख़त्म हो गयी है शायद मेरी । फिर माँ की लोरी याद आयी, मुझे वो ककनूस पक्षी फिर से पैदा होता हुआ दिखा, वो अपने हज़ारों सपने याद आए जो अभी अधूरे है । मैं ऐसे सबकुछ छोड़ के नहीं जा सकता । मैं ज़ोर से चिल्लाया, अन्धेरों की दीवारों को मिटाने के लिए। और फिर सामने धुँधली सी दीवार दिखी और फ़ोन की घंटी बज रही थी । माँ का फ़ोन था ।
ये जान कर अच्छा लगा की ज़िंदा हू मैं ।
माँ के वही पुराने सवाल एक बार फिरसे मेरे कानो में गूँज रहे थे । खाना-पीना, नौकरी और “घर कब आ रहे हो?”
यूँ तो हर रोज़ एक ही सवाल सुन कर चिढ़ जाता हूँ मैं, लेकिन आज वही सवाल बड़े ख़ूबसूरत लग रहे थे । मैंने बड़ी तसल्ली से हर सवाल का जवाब दिया, माँ को यक़ीन दिलाया कि, मैं अपनी ज़िन्दगगीं को बेहतर बनाने की पुरी कोशिश कर रहा हूँ । अक्सर मौजूदा हालात की वजह से चिड़चिड़ापन बना रहता है दिमाग़ में और अक्सर सही से बात नहीं कर पाता माँ से, जता नहीं पाता की कितना लगाव रखता हूँ उनसे ।
आज तो मैंने माफ़ी भी माँग ली माँ से । जब बहुत प्यार दिखने का मन आया तो कह दिया कि “माँ बहुत याद आ रही हैं आपकी”।
माँ की आवाज़ सुनकर, आख़िरकार उस बुरे स्वप्न का अंत हूआ जो मुझे मौत के मुहाने तक ले गया था । अपने अपनो की मुहब्बत, लगाव, परवाह हममें इतनी शक्ति भर देते है कि हम अक्सर अपनी डुबती नाँव किनारे तक पहुँचा देते है । उनके शब्दों के सहारे से एक नयी उम्मीद का प्रस्फुटन होता जो हमें नये मुक़ाम तक ले जाती है ।
इस स्वप्न ने मुझे ये भी सिखाया की इंसान अक्सर आशाविहीन हो जाता है और उसे एक आवाज़ की ज़रूरत होती है । जो उसे अपने राह पर ले आये । चाहे जो भी हो हमें बस हार नहीं माननी चाहिये । चलते रहना चाहिये,
अपने अपनो की ख़ातिर, अपने सपनों की ख़ातिर ।
- रोशन कुमार “राही”
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