Friday, December 8, 2017
Labels:
dastan-e-mehkashi
“मेरी किताब”
Posted by
Roshan Yadaw
at
1:08 AM
एक दिन, यूँ ही,
राही पूछ बैठा इक आइने से,
क्या मैं सो जाऊ,
बंद करके सपनो की किताब अपनी?
आइना बोला की, ठहर जाना भी कहा
तुम्हारी कहानी का हिस्सा है ,
समझ लेते हो तुम राहों को,
और चलना मुश्किल हो जाता हैं।
“राही”, तुम बस ऐसे ही नादाँ बन चलते रहना
हैं सपनो की वो मंज़िल जो रस्ता देख रही हैं
अब जब सपनो में मिल जाए तो कह देना
अब तू मुझसे ज़्यादा दूर नहीं है ।
बेहतर होगा, जो जीवन राहों पे ख़त्म हो जाये
और यूँ ही मंज़िल भी रास्ते पर मिल जाये ।
-रोशन कुमार “राही”
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